मेरा गांव

 गाँव का नाम सुनते ही न जाने कितनी ही स्मृतिया एक के बाद एक मानस पटल पर क्रिड्रा करने लगती है। पुराना मकान, सीढीनुमा हरे भरे खेत, साल, खेर, बेल, तेंदू पत्ता, के पेडो से भरे जंगल और जंगली जानवर,हाथी ,शेर , बाघ , भालू , हिरन , कोटरा , सर्प ,बन्दर, से भरा हजारीबाग राष्ट्रीय उद्यान और  प्यारा सा बचपन, गाँव का बचपन धूल-मिट्टी में रहा ,
जंगल में  खेतो की खाद के लिये  गोबर को  डालो मे भरकर खेत मे डाल देते  थे। खेतो मे गेंहूँ,जौ,धान,मडुआ,
भट्र की खेती  होती थी खाद वही पुरानी और पानी के लिये देवराज इंन्द्र पर निर्भरता। बिना खाद पानी के जमीन से आशा भी क्या की जा सकती है। कमरतोड मेहनत और फल वही, मुटठी भर अनाज। पर मजाल है गाँव वाले मेहनत करना छोड दे।
पहले गाँव मे पहुचने के लिए लगभग 10 या 15 किलोमीटर पैदल चलना पडता था पर अब तो सड़क  बन गया है। कई टैक्सी, जीपे एव  बसे रोजाना आती जाती है। गाँव से अब मु्श्किल से आधे किलोमीटर पैदल चलनी  पडती है। सड़क  के कारण बहुत सी सुविधाये मिल गयी है।
गाँव के लोग रात्रि मे उजाले के मिट्रटी के तेल की ढिबरी का प्रयोग करते है । अब तो गाँव मे बिजली पहुच गयी है।
हम स्कुल पैदल जाते थे और खाना सुबह ही खा लिया करते थे और खाना मध्यांतर में नहीं खाते थे क्योकि घर से स्कुल 2 किलोमीटर दूर थी हम बच्चे फिर शाम को जब घर वापस आते तो खाना खाते थे हमारे स्कुल में चारदीवारी नहीं थी और स्कुल के चारो ओर जंगल ही जंगल थे
बाज़ार घर से 2 किलोमीटर लगती थी और जरूरत के बहुत ही कम सामान मिलता था औरे किसी के शादी के लिए सामान 30-40 किलोमीटर दूर जाना पड़ता था   अब तो 1 किलोमीटर दूर ही सबकुछ मिलाने लगा  है
गांव में पहले 40 परिवार रहती थी उसमे से 20 परिवार मेरे जाति के , 10 हरिजन जाति के और 10 परिवार बिरोर जन जाति के थे बिरोर जन जाति के लोगो के बोल चल का भाषा आलग था हम लोग उनकी एक भी बात नहीं समझ पते थे वे अक्सर जंगलो में ही रहते थे खाना भी जंगलो में ही जंगली जानवर , पंछी  को मार कर  बनाते थे इनके बच्चे स्कुल नहीं जाते थे इसीलिए बिरोर जन जाति के लोग आज भी बहुत कम पढे लिखे होते है आज मेरे गांव में 150 परिवार है 100 परिवार मेरे जाति के लोग रहते है 25 हरिजन जाति के , 25 बिरोर जन जाति के लोग रहते है

" उस मिटटी की महक मेरी साँसों में है
मेरा गाँव मेरा घर तो मेरी यादों में है"



मेरा बच्चपन मेरा गांव
सुरेन्द्र